Subhash Chandra Bose
ऐसे थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस
Netaji Subhash Chandra Bose was like this
सुभाष बाबू 23 जनवरी 1897 में कटक उड़ीसा में पैदा हुए। इनके पिता जानकी नाथ की अभिलाषा थी कि सुभाष बड़ा होकर एक बड़ा सरकारी ऑफिसर बने, लेकिन बचपन से ही सुभाष के विचार भिन्न थे। वह धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उनके अंदर दुखियों के प्रति दया की भावना प्राथमिक रूप से मौजूद थी। धनी घर में पैदा होकर फर्श पर सोना, धोती कुर्ता पहनना उनके त्याग को दिखता था । जब 8 साल के ही थे तो भानपुर सरगने में बीमारी फैल गई। सुभाष घर पर बिना बताए वहाँ चले गए और 2 मास तक डॉक्टरों के साथ बीमारों की सेवा की। इसी प्रकार जब वे 16 साल के थे तो वह धार्मिक जिज्ञासा व साधुओं की अलौकिक चरित्र की चर्चाओं के आकर्षण में घर छोड़कर ऋषिकेश, हरिद्वार, गया, मथुरा, वृंदावन आदि स्थानों पर घूमते रहते थे।
सुभाष तीव्र स्वभाव के थे । अन्याय को सहन न करना उनका विशेष गुण था। स्कूल या कॉलेज में वह अंग्रेज बच्चों से दबकर नहीं रहते थे, और अपने साथियों का भी मनोबल बढ़ाते रहते थे।
आरम्भ से सुभाष के ऊंचे विचार थे। वह स्वामी विवेकानंद से बड़े प्रभावित हुए, और उनकी धारणा थी कि वह विवेकानंद जैसे महान बने और देश का नाम ऊंचा करें। इसके लिए उन्होंने गुरु की भी तलाश की इधर-उधर घुमी लेकिन निराशा हाथ लगी । कुछ दिन उन्होंने स्वामी विवेकानंद के सानिध्य में रहकर ज्ञान प्राप्त किया। उनका आडंबर से भी मैं विश्वास नहीं था। उन्होंने एक बार कहा था "मुझे कृष्ण का वह रूप जो तीर्थ में पूजा है आकर्षित नहीं करता, मैं तो कृष्ण के उस ग्रुप का पुजारी हूं जो उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्म युद्ध में दिखाया था"।
उन्होंने अपने पिता के कहने पर 1920 में आई. सी. एस. परीक्षा पास की तो उनका चतुर्थ नंबर आया था। लेकिन उन्होंने अंग्रेजों की सेवा करने से इंकार कर दिया था और इंग्लैंड में देशबंधु चितरंजन दास को पत्र लिखा यदि वह आई.सी.एस. से त्यागपत्र दे दें तो वे उन्हें किस काम में लगा लेंगे। देशबंधु का पत्र पाकर वे इंग्लैंड से भारत लौट आए और उनके दाएं बाजू बनकर देश को स्वतंत्र कराने में जुट गए। देशबंधु चितरंजन दास को वे अपना गुरु मानते थे। उन्होंने सुभाष को कोलकाता के नेशनल कॉलेज का प्रिंसिपल बना दिया। वहां उन्होंने युवकों को ऊपर उठाने का प्रयास किया और स्वयंसेवक सेवा का भी सूत्रपात किया।
अपने क्रांतिकारी स्वभाव से उनको गांधीजी से अलग होना पड़ा और नए संगठन फॉरवर्ड ब्लॉक की नींव रखी। रंगून के प्रसिद्ध जुबली हाल में उन्होंने अपने भाषण में जनता से कहा कि " तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा" उनकी बात पर सभी ने अपनी स्वीकृति दी और खून से हस्ताक्षर किए थे।
उन्होंने देश के लिए सर्वस्व अर्पण कर दिया। 23 जनवरी 1945 को सिंगापुर में उनको उनके जन्मदिन पर सोने से तोला गया और उन्होंने वह सारा धन देश के लिए अर्पित कर दिया। पंजाबी व्यापारी ने सिंगापुर में सुभाष को अपनी सारी संपत्ति अर्पित कर दी थी और स्वयं आजाद हिंद सेना में भर्ती हो गया था।
सुभाष के त्याग का असर सब पर जादू की तरह होता था। उन्होंने देश के लिए कई बार जेल काटी । द्वितीय महायुद्ध के समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन उनके अनशन करने के कारण छोड़ दिया गया । यही से सुभाष बाबू का आजादी के लिए संघर्ष शुरू होता है। उनको उनके मकान में नजरबंद किया गया । वहां उन्होंने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली और 15 जनवरी 1941 को एक मौलवी का भेष बदलकर वह देश से बाहर निकलने में सफल सफल हुए। उस समय भारतीय टुकड़ी जर्मन के विरुद्ध लड़ रही थी। उन्होंने उसे रोका तथा कहा कि जर्मनी और हमारा एक ही लक्ष्य है उनसे ने लड़ो । हिटलर ने मदद करने का आश्वासन दिया। वहीं पर आजाद हिंद फौज का स्थापना हुई। सिंगापुर में उनका प्रथम अधिवेशन हुआ तथा सुभाष उनके नेता बने। उन्होंने इसका कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया तथा द्वितीय युद्ध में अंग्रेजो के विरुद्ध लड़े। सुभाष का नारा था "दिल्ली चलो" और "इंकलाब जिंदाबाद" इम्फाल तक आजाद हिंद फौज आ गई थी। लेकिन अंग्रेजों की वायु सेना के सामने आजाद हिंद फौज डटी न रह सकी । बहुत से सिपाही घेरे में आ गए और हार हुई। जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया तो आजाद हिंद फौज को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। सुभाष सिंगापुर होते हुए जापान जा रहे थे । कहते हैं उनके जहाज में आग लग गई और 18 अगस्त 1945 को उनके प्राण पखेरू उड़ गए। उनके अंतिम शब्द थे "मैं अब बचूंगा नहीं मैं आजाद भारत की आजादी के लिए आखिरी दम तक लड़ता रहा। भारत स्वतंत्र होगा और शीघ्र ही स्वतंत्र होगा।
आज भी वह नेता जी के नाम से हर भारतीयों के हृदय में विराजमान हैं । जीवन में उनका एक लक्ष्य था देश को आजाद कराना । भारत के इतिहास में उनका नाम सदैव अमर रहेगा । उनका नाम राष्ट्र निर्माताओं में बड़े आदर व सम्मान के साथ लिया जाएगा।
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