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Lokmata Ahilya Bai || लोकमाता अहिल्या बाई का सम्पूर्ण जीवन परिचय Hindi Me

 Lokmata Ahilya Bai Holkar 

 लोकमाता अहिल्या बाई का सम्पूर्ण जीवन परिचय Hindi Me


Lokmata Ahilya Bai, लोकमाता अहिल्या बाई का सम्पूर्ण जीवन परिचय Hindi Me
Lokmata Ahilya Bai Holkar


     लोकमाता अहिल्या बाई अहिल्याबाई का जन्म सन् 1725 में महाराष्ट्र में औरंगाबाद जिले के । चौंदी ग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम मानको जी शिंदे तथा माता का नाम सुशीला था । माता - पिता के धर्मपरायण एवं सरल सात्विक जीवन का बालिका अहिल्या पर गहरा प्रभाव पड़ा । इन श्रेष्ठ संस्कारों से ही अहिल्याबाई अपने जीवन में इतनी महत्ता प्राप्त कर सकी । सन् 1735 में Lokmata Ahilya Bai का विवाह बड़ी धूमधाम से खंडेराव होलकर के साथ सम्पन्न हुआ । इस प्रकार चौंदी गांव की किशोरी अहिल्याबाई , होलकर राज्य की पुत्रवधू बनकर होलकर वंश में सम्मिलित हो गई । युवराज खंडेराव , इकलौते पुत्र होने के नाते बड़े हठी , चिड़चिड़े और उदंड थे । अहिल्याबाई ने अपने प्रेम , त्याग , सहानुभूति और कर्त्तव्यनिष्ठा से अपने पति खंडेराव का दिल जीत लिया । वह राज कार्य में भी वांछित रुचि लेने लगे । 

     सन् 1745 में पुत्र मालेराव और 1748 में बेटी मुक्ताबाई का जन्म हुआ । अहिल्याबाई को पिता समान ससुर मल्हाराव से राजकला , युद्धकला और राजनीति के दांवपेंच की भी शिक्षा मिलने लगी । एक विनम्र और योग्य शिष्या की भांति उसने शिक्षा ग्रहण की । आवश्यकता पड़ने पर वह मल्हाराव के साथ युद्धक्षेत्र में भी जाने लगी । इससे उन्हें युद्ध कला की व्यावहारिक शिक्षा मिली । मल्हाराव के प्रोत्साहन पर वह घोड़े पर सवार होकर तीर्थयात्रा करने गई । इन यात्राओं से उन्हें देश की भौगोलिक , सामाजिक और राजनैतिक स्थिति की प्रत्यक्ष जानकारी मिली । मल्हारराव होलकर के मार्ग दर्शन में Lokmata Ahilya Bai राज्य कार्य को भी अच्छी तरह संभालने लगी । महत्वपूर्ण आदेश और राजकीय पत्र भी उनके नाम से दिए जाने लगे । 

    24 मार्च 1774 में युद्ध करते हुए वीर खाण्डेराव की मृत्यु हो गई । इधर अहिल्या बाई पति के स्वर्गवासी होने की खबर सुनकर ही अचेत हो गई । जब होश आया तो अहिल्याबाई अपनी सुध - बुध खो बैठी और बिलख बिलखकर विलाप करने लगी । भावी जीवन ही अंधकारमय लगने लगा ।

     उस समय पति की मृत्यु के बाद , स्त्रियों को पति के शव के साथ सती हो जाने की प्रथा थी । मल्हारराव अहिल्याबाई के पास गए । उन्होने अहिल्या के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा , “ बेटी मेरी इस वृद्धावस्था का तो तनिक ख्याल कर । मैं पुत्र के और तेरे बिना इस राज्य भार को कैसे संभाल सकूँगा । खंडेराव के बाद अब तू ही मेरा बेटा है । अहिल्याबाई अपने असहाय वृद्ध ससुर को रोते देखकर विचलित हो गई । उन्होंने धैर्य पूर्वक विवेक से विचार कर निर्णय किया कि वह लोक लाज के डर से सती नहीं होगी । 

     Ahilya Bai ने , अपने पति की चिता के साथ अपनी समस्त कामनाओं और सुख - सुविधाओं को भी हमेशा के लिए भस्मीभूत कर दिया । देवी ने राजसी सुखों और आभूषणों , कीमती वस्त्रों को भी त्याग दिया और हमेशा के लिए श्वेत वस्त्र धारण कर लिए । उन्होंने शेष जीवन ईश्वर को अर्पित कर मानवमात्र की सेवा करने का व्रत ले लिया । 

    वह सती न होकर मानव - सेवा के लिए समर्पित होकर महासती की श्रेणी में आ गई । सूबेदार मल्हारराव होलकर अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु से टूट गए थे । कुछ समय पश्चात मात्र 22 वर्ष की आयु में ही मालेराव अपनी माता अहिल्याबाई की गोद सूनी करके स्वर्ग सिधार गया । मालेराव ने मात्र दस माह ही शासन किया था ।

    अपने इकलौते पुत्र मालेराव की मृत्यु ने देवी अहिल्याबाई को बिल्कुल ही अन्दर से तोड़ कर रख दिया । वह पहले अपने पति फिर ससुर और अब पुत्र को खो चुकी थी ।

     पुत्र मालेराव की मृत्यु से देवी अहिल्या को राजकार्य से वैराग्य - सा हो गया । उन्होंने सोचा कि सब कुछ त्याग कर संन्यास लेकर दूर कहीं चली जाए किन्तु विवेक ने उन्हें सचेत कर दिया । जिस प्रजा के हित के लिए वह सती नहीं हुई थी उस प्रजा के लिए उन्होंने संन्यास लेना भी स्वीकार नहीं किया । वह पुनः जीवन के कर्मक्षेत्र में उतर आयी । कुछ स्वार्थी व प्रपंची लोग कुचक्र रचकर राज्य को हड़पना चाहते थे । 

    देवी को यह मालूम पड़ा तो उन्होंने अपने विरोधियों को मुंह तोड़ उत्तर दिया , " जिस वंश के लोगों ने , इस राज्य पर शासन किया है उनमें से एक की मैं पुत्रवधू हूं , दूसरे की पत्नी हूं और तीसरे की माता । इस नाते मेरा यह अधिकार ही नहीं , कर्त्तव्य भी है शासन व्यवस्था को अपने हाथ में ले लूं । जिससे प्रजाजन को कोई कष्ट न हो । " 


Lokmata Ahilya Bai, लोकमाता अहिल्या बाई का सम्पूर्ण जीवन परिचय Hindi Me
लोकमाता अहिल्याबाई होलकर

    

    " मेरे पुरखों ने खून - पसीना एक करके तलवार के बल पर इस राज्य की स्थापना की । यह राज्य उन्हें खैरात में नहीं मिला। अगर किसी ने इसकी ओर टेढ़ी नजर से भी देखा तो मुंहतोड़ उत्तर दिया जाएगा " ।1 उसी समय राघोबा पेशवा अपनी 50 हजार की सेना लेकर इन्दौर पर चढ़ाई करने आ गया । इधर देवी अहिल्याबाई ने , राजनैतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए चतुराई भरा एक पत्र राघोबा को भेज दिया- " दादा राघोबा , आप सेना लेकर होलकर राज्य छीनने आए हैं । आपकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी । आप मुझे अबला समझते हैं , इसलिए चढ़ाई करने आ गए । लेकिन आपको युद्धभूमि मालूम पड़ेगा कि मैं कैसी अबला हूं । आपकी सेना का मुकाबला , मेरी महिला सेना करेगी यदि मैं हार भी गई तो कोई मेरी हार पर हँसी नहीं उडाएगा लेकिन आप हार गए और वह भी एक महिला शासिका से , तो निश्चय ही आप की मुंह दिखाने के लायक भी नहीं रह जायेंगे । साथ ही एक अबला नारी पर आक्रमण करने का जो आप पर पाप लगेगा उससे तो जीवन भर आपको नहीं मिल पाएगा । इन सब बातों पर विचार करके ही आप युद्ध भूमि में आगे बढ़ें तो उचित होगा । " 

     देवी युद्ध में वीरगति पाने वाले सैनिकों के परिवारों का पोषण भी राज्य की ओर से करती थी । इन सुविधाओं और संरक्षण के कारण उनके सैनिक प्राण - प्रण से युद्ध करते थे और प्रायः विजयश्री प्राप्त करके ही लौटते थे । वह युद्ध को आरम्भ में ही रोकने का पूर्ण प्रयास करती , लेकिन युद्ध के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता । युद्ध क्षेत्र में वे साक्षात महाकाली बन जाती थीं । उन्होंने रामपुरा के विद्रोही सरदार सौभागसिंह को तोप के मुंह पर बंधवा कर उड़वा दिया छुटकारा था । 

     देवी अहिल्याबाई ने अपने जीवन में कभी अन्याय नहीं किया । उन्होंने अपने राज्य में नियमबद्ध न्यायालयों की व्यवस्था की । वह न्याय के आसन पर बैठ कर दोनों पक्षों की अपील सुनतीं और फिर उचित न्याय करती । प्रजा की उनके प्रति इतनी श्रद्धा थी कि उनके निर्णय को अमान्य करने को ही पाप समझती । 

    देवी अहिल्याबाई ने अपने शासनकाल में समाज के सभी वर्गों के लोगों को समान रूप से पूर्ण संरक्षण दिया । विधवाओं के प्रति तो वह गहरी सहानुभूति रखती थी । एक महिला होने के नाते उनकी समस्याओं का उन्हे पूरा ज्ञान था । होलकर राज्य मालवा , राजपूताना , निमाड़ और दक्षिण के पठार के 126 परगनों में फैला हुआ था । मल्हारराव होलकर के शासनकाल में इस राज्य की वार्षिक आमदनी 75 लाख रुपये थी जो देवी अहिल्याबाई के शासनकाल में बढ़कर सवा करोड़ हो गई थी ।

     एक बार कवि Lokmata Ahilya Bai के गुणों और महिमा का काव्यमय वर्णन देवी को सुनाने गया । कुछ देर तो महारानी ने सुना , फिर बोली , “ आपके ग्रंथों में मेरे अतिशय गुणगान के अतिरिक्त और क्या है ? कवि महोदय , यदि मेरे बदले उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के गुणों का वर्णन करते तो तुम्हारा श्रम और जीवन दोनों ही सार्थक हो जाता । " देवी ने कवि को उचित पारिश्रमिक देकर उस महिमा वाली पोथी को नर्मदा मे डुबो दिया ।

     देवी अहिल्याबाई ने एक साधारण परिवार में जन्म लिया था किन्तु अपने कठिन परिश्रम , दृढ़ निश्चय और आत्मबल से एक समृद्ध राज्य की शासिका बन गई । उनका प्रजा के साथ माता और पुत्र का नाता था । वह सभी से मिलती थीं , राजा हो या रंक , छोटा हो या बड़ा । उनके हृदय के द्वार सभी के लिये खुले रहते । प्रत्येक व्यक्ति उन्हें अपनी व्यथा कह सकता था । दोपहर से संध्या तक दरबार करती । संध्या होते ही वह दो घंटे के लिये उपासना करतीं । भोजनोपरांत फिर दरबार में आती और रात 11 बजे तक बैठती । जबकि तत्कालीन देशी राज्यों के शासक आमोद - प्रमोद और दूसरे का राज्य हड़पने की कुटिल चालों में उलझे रहते थे । किन्तु देवी का समय सदैव धर्म - कर्म और प्रजा के कल्याण में ही व्यतीत होता । उनके इसी स्वभाव एवं आचरण के कारण सब लोंगो ने उन्हें ' लोकमाता ' की उपाधि दे रखी थी । आज भी मालवा में उन्हें लोकमाता के रूप में स्मरण किया जाता हैं । 

     कमजोरी की हालत में शीत ज्वर और अतिसार ने आ घेरा । वैद्यों ने यथाशक्ति चिकित्सा की किंतु देवी की अब जीवन - शक्ति क्षीण हो चुकी थी । आखिर 13 अगस्त , 1795 तदनुसार भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी के दिन लोकमाता अहिल्याबाई होलकर ने अंतिम सांस ली । उन्होंने होलकर राज्य पर 29 वर्ष के लम्बे समय तक सफल शासन किया । इस राज्य की वह पुत्रवधू बनकर आई थीं और लोकमाता बनकर विदा हुई । समाज व राष्ट्र के लिए उनकी अपरिमित देन रही है । उन्होंने अपने जीवन द्वारा एक आर्दश पुत्री , बहू , मां और शासिका का अनुकरणीय चित्र समाज के सामने रखा ।


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