Holi special
होलिकोत्सव पर विशेष
भारतीय संस्कृति में वासंती नवसस्येष्टि
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Holi special |
भारतवर्ष पर्वों का देश हैं। संपूर्ण भारतवर्ष में आए दिन कहीं ना कहीं कोई ना कोई पर्व या त्यौहार बनाया जाता है। यहां के प्रमुख पर्व में होली, दीपावली, रक्षाबंधन आदि वृहत स्तर पर हर्षोल्लास पूर्वक परस्पर प्रेम व सौहार्द को स्थापित करने वाले पर्व हैं । होली का महत्व अन्य पर्वों की तुलना में अत्यधिक है। होली का पर्व वसंत ऋतु के फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होता है।
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Happy holi |
होली का वास्तविक स्वरूप
हमारे पूर्वज ऋषि मुनि हर प्रकार से ज्ञान विज्ञान के भंडार थे। इसके साथ ही आहार-विहार, विचार, व्यवहार में मर्मज्ञ थे । उन्होंने ऋतु संधिकाल में होने वाले परिवर्तन से व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा सामाजिक स्वास्थ्य समृद्धि एवं आपसे सामंजस्य को अभीवृद्धि हेतु पर्वों का विधान किया है । जो हमें आंतरिक व बाह्य अपूर्णता, अभाव, अंधकार, अज्ञान, अविधा व पराधीनताओंं से ऊपर उठाकर पूर्णता की ओर ले जाते हैं। ऋतुओंं के राजा बसंत के आविर्भाव के बाद बसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है। इस समय बसंत श्री अपने पूर्ण यौवन पर होता है। वन उपवन, नगर- डगर सर्वत्र पुष्पित पल्लवित विकसित प्रफुल्लित सुगंधित वातावरण के मध्य नवीनसस्य का आगमन होता है । ऋषियों की पावनी परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। नवीन अन्नादी वस्तुओं को देवों को समर्पित किए बिना अपने उपयोग में नहीं लाते हैं। जैसे सभी चराचर जगत में मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। उसी प्रकार भौतिक देवों में अग्नि सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः अग्नि देव को समर्पित करके अन्न का ग्रहण किया जाता है। "अग्नि वै देवानां मुखम् "। जो कुछ भी हम अग्निदेव को समर्पित करते हैं वह सभी देवताओं को मिल जाता है। अग्नि देव का दूत हैं। वेद में इसको अनेक बार देवदूत कहा गया है। इसलिए नवागत अन्न सर्वप्रथम अग्नि को ही अर्पण किए जाते हैं। अपने उपयोग में लाए जाते हैं । श्रुति के अनुसार- "केवलघो भवति केवलादी।" अर्थात अकेला खाने वाला केवल पाप खाने वाला होता है। श्रुति का समर्थन करते हुए मनु महाराज का भी यही संदेश है-
अघं स केवलं भुङक्ते यः पचत्यात्मकारणात ! यज्ञशिष्टाशिनं ह्येतत् सतामन्नं विधीयते ।। ( मनु . 3.118 )
आशय यह है कि जो व्यक्ति केवल अपना पेट भरने के लिए ही भोजन पकाते है वह केवल पाप को खाता है,
अर्थात इस प्रवृत्ति से परिवार और समाज में स्वार्थ लोभ आदि की पाप संभावना ही बढ़ती है । क्योंकि यज्ञ के करने के बाद शेष बचा भोजन ही सज्जनों का भोजन माना जाता है। इसके विपरीत बिना यज्ञ का भोजन असतपुरुषों का भोजन है । संस्कृत में अग्नि में भूने हुवे अर्द्ध - पक्व अन्न को ' होलक ' कहते हैं-
' तृणाग्निभृष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः । ' ( शब्दकल्पद्रुमकोशः )
होलिका दहन का अध्यात्मिक संदेश
यद्यपि लोक में प्रचलित कथा के अनुसार हिरण कश्यप के पुत्र भक्त प्रहलाद को उसकी बुआ होलिका के द्वारा अग्नि में भस्म कर देने के प्रयास की बात प्रसिद्ध है। कश्यप की बहन को वरदान प्राप्त था, कि वह अग्नि में जलेगी नही। जैसे ही आग जली वैसे ही कपड़ा होलिका के पास से उड़कर भक्तप्रह्लाद के ऊपर आ गया। इसी कारण भक्तप्रह्लाद जॉनर से बच गए, और उसकी जगह होलिका आग में जल गई। यही कारण है कि होली का त्यौहार बुराई पर हुई अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
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होलिकादहन |
इस बात को व्यवहारिक रूप से ऐसा समझना चाहिए कि मनुष्य का अहंकार, अज्ञानता हिरण कश्यप के समान है तथा कुत्सित मनोवृति वासना, तृष्णा यह होलिका के समान है । जो आनंद रूप में आनंदित ईश्वर भक्ति रूपी प्रह्लाद को भस्म करना चाहती हैं। परंतु जो मनुष्य भगवान का भक्त होता है तो उसकी भक्ति से उसको उस ईश्वर की ओर से अनंत सामर्थ्य प्राप्त होता है। पूर्ण मानसिक, निर्मलता व सुख शांति को प्राप्त करता है । जिस भक्त का मन प्रभु की भक्ति में लगा होता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उसकी मति, भक्ति, कृति, प्रकृति, संस्कृति का नव निर्माण करती हैं। उसकी स्थिर मति होलीकारूपी कुत्सित मनोवृत्ति को नष्ट कर डालते हैं। साधक बाधक तत्वों से कभी भी विचलित नहीं होता है। साधक साधना की राह में जो भी कष्ट आते हैं उन्हें प्रसन्नता से नष्ट कर देता है।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ठीक ही कहा है-
प्रसादे सर्वदुःखाना हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।। ( भागवतगीता 2.65 )
अर्थात उक्त प्रसाद (अंत करण की प्रशंत्ता) से इस साधक के सब दुख क्षिण हो जाते हैं। मन प्रसन्न रहने लगता है प्रसन्नचित व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही समाधि में स्थिर हो जाती है। इस प्रकार राग द्वेष के छूटने से प्राप्त मन की निर्मलता प्रसंता का कारण बनती है और इसी प्रसन्नता से समाधि सिद्ध होती है ।
होली का ऐतिहासिक एवं साहित्यिक महत्व
संस्कृत साहित्य में बसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन हैं। जिस में कालिदास तथा भारवी माघ और अन्य कई वसंत कवियों ने वसंत उत्सव की खूब चर्चा की है। भक्ति कालीन और रीतिकाल की हिंदी साहित्य में होली और फाल्गुन माह को विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकाल कवि विद्यापति तथा भक्ति कालीन सूरदास , रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी और मीराबाई, कबीर और रितिकालीन बिहारी केशव, धनानंद जैसे आदि अनेक कवियों को यह विषय रहा है।
होली भारत का बहुत ही प्राचीन पर्व है, जो होली या होलाका नाम से भी जाना जाता है। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में भी आता है।
वसंतोत्सव में रंगों का महत्व
प्राचीन काल में भारत वासियों वसंतोत्सव आमोद - प्रमोद के पर्व पर कुसुमसार (फूलों से बने इत्र) आदि सुगंधित द्रवो का परस्पर उपहार रूप से व्यवहार में लाते थे। सम्मिलित मित्रों पर गुलाबपास (पिचकारीओं) द्वारा गुलाब का जल छिड़का जाता था तथा प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त गुलाल रंग आदि का प्रयोग करते थे। इस समय प्रकृति में यत्र तत्र सर्वत्र विभिन्न प्रकार के रंगों से युक्त सुगंधित पुष्प विकृति को अलंकृत कर रहे होते हैं। प्रकृति प्रदत सामर्थ्य में सभी वनस्पति और प्राणी चारों और हर्षोल्लास का दिव्य वातावरण बनाकर ईश्वर का गुणगान कर रहे हैं। ठीक ऐसे ही हम सभी मनुष्य अपने न्यूनताओं, हीनभावनाओं, भेदभाव, छल - कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि छोड़कर इस वर्ष उत्सव के पर्व को एक तत्व के भाव को आत्मसात करते हुए मनाएं, और किसी भी प्रकार से किसी के साथ प्रतिकूल आचरण न करें। एक दूसरे को गले से लगाए, भूल - भटके को राह दिखाए, अपनी गलत वासना को उपासना के माध्यम से ठीक करें।बढ़े चलो वीर जवानों मातृभूमि के मानी
नाम निशान मिटा दो उसका , देश की करे जो हानि
जो होना था सो होली अब प्रेम की बोलो बोली
देश बड़ा गौरवशाली है भारत माँ शेरों वाली है
मिटा लो सारे दुःख दर्द आज तो होली निराली है ।।
ओ ३ म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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