जीवन निर्माण में गुरु की भूमिका
भारत भूमि वह धरा है , जिसमें प्राचीनतम ज्ञान परंपराओं को अपनी गोद में आश्रय दिया हुआ है। यहां का प्राचीन ज्ञान, वैभव, सांस्कृतिक ऐश्वर्या, भौतिक समृद्धि , आर्थिक राजनीतिक सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था है । आज भी संपूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित करती हैं।
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जीवन निर्माण में गुरु की भूमिका |
अन्य राष्ट्र जब अपने अस्तित्व को संभालने संजोने में व्याप्त थे, उस समय आर्यवर्त एक महाशक्ति के रूप में शिक्षा , चिकित्सा सैन्य , कृषि, वास्तुशिल्प, व्यापार आदि समस्त क्षेत्रों में विश्व का नेतृत्व कर रहा था । और इस विशाल साम्राज्य की नियुक्ति यहां की शिक्षा प्रणाली हैं।
यहां सिखाने वाला व्यक्ति, अर्थात शिक्षक केवल शिक्षक नहीं होता, अपितु आचार्य, गुरु की भूमिका में होता है ।
अपने आचरण से वह अपने प्रत्येक शब्द से वह छात्र को प्रशिक्षित करता है । उधर विधा ग्रहण करने की इच्छा वाला विद्यार्थी भी केवल विद्यार्थी नहीं होता । वह अपने गुरु का अंतर्वासी होता है । हृदय में , आत्मा में निवास करने वाला होता है।
जैसे मां शिशु के शरीर निर्माण हेतु उसे अपने गर्भ में संरक्षित करती हैं। उसी प्रकार आचार्य शिष्य को अपने आचार्यकुलम में सब प्रकार के दूषित प्रभावों का वातावरण को देखते हुए, उसमें सब प्रकार से दिव्यता का आधान कराता है।
उनके व्यक्तित्व को इतनी विराटता प्रदान करता है कि वह स्नातक ब्रह्मचारी अपने कार्यकलापों में संपूर्ण धरा को तृप्त करने वाला होता है।
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